Friday, January 30, 2009

मुझे चाँद देखने की फ़िक्र न थी

उस रात तारे ज़मीन पर उतर
कुछ दूर मेरे साथ चले
सब ठण्ड से ठिठुर गए , कहीं
गर्मी के एहसास के लिए ,
गुज़रती हुई ज़िन्दगी का एहसास शायद हुआ था
वह पल तो थम गया
सब थम गया , कुछ हुआ सा था
किसी मोड़ की शुरुआत में
अंत को देखने की ललक सी थी
यह सड़क कहाँ ख़तम होगी
इस बात की महक थी ,
कुछ मलाल थे उस रात के
कुछ गफ्लातों की लत सी थी ,
कोई भले पुकारता हो
आहटों की महक से थी

उस रात ,देर रात मुझे चाँद देखने की फ़िक्र थी

2 comments:

  1. चाँद को देखने की फ़िक्र नहीं, तारों का साथ जो है... आपकी कविता मधुर है, और कविता की सबसे अच्छी बात तो यह होती है की वो हमारी सोच को प्रतिबिंबित करने का कार्य करती है, आगे भी इसी तरह के रचनात्मक प्रयासों की उम्मीद रहेगी!

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आपके उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद्