Monday, January 26, 2009

जीवन जाल ,जनवरी ०९

जाल बुन रहा हूँ इक ,
यादों का , यादों का ,हाँ यादों का
यादें , शब्दों की दासी नही होतीं ,
कोई आवाज़ नही होती इनकी
ये बस होती हैं ।
या कहूँ की यादें आती हैं ।

मेर इस जाल मैं तीन सुन्हेरे धागे भी हैं ,
और एक सफ़ेद धागा भी इनके बीच
इनका रंग चुराने की कोशिश कर रहा है ।

मैं पूरा धयान रखा हूँ की धागे सही ही चलें
अब ये लगता है की मैं बाँध जाऊँगा
शायद इस जाल मैं साँस भी न ले पाऊंगा
हाँ यही तो मैं चाहता था
बंद होना , दब जाना , थम जाना
नही क्या ।

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