Saturday, April 11, 2009

मेरा ये दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है

ये दौर जिंदगी का ना जाने क्यूँ बदलता है ,
मेरा दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।

उस ज़माने मैं हमने लाख तारे तोडे हैं ,
अब इस ज़माने ने हमे तोड़ रखा है ।

वो क्या आदयें थीं अपनी इतराने की ,
अब अपनी आदाओं को हमने ही भुला रखा है ।

पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।

मुझसे गलती जो हुई तो माफ़ मुझको सब ने किया ,
अब मेरी गलतियों को ही अपना मंसूबा बना रखा है ।

जो मेरे दिल को बेच दिया था मैंने पैसों मैं ,
अब मेरे दिल को ही मैंने पैसों सा बना रखा है ।

जो हर रह गुज़रती थी मेरे घर से होकर ,
अब मेरा घर ही मैंने किनारे पर बिठा रखा है ।

की मुझे आज भी कोई उस दौर से याद करता है ,
मेरा ये दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।

6 comments:

  1. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।

    अच्छा लिखा है जी

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  2. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।
    bhut sundar.likhate rhe.

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  3. बहुत बढ़िया-जारी रहिये.

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  4. की मुझे आज भी कोई उस दौर से याद करता है ,
    मेरा ये दिल भी बस मुफलिसी मैं ही मचलता है ।
    vah bahut badhiya.

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  5. पूरी करी थीं ना जाने कितनो की मुरादें ,
    अब अपनी ही मुरादों को तकिए से दबा रखा है ।
    kya bat hai...bahut khoob.

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  6. yaade kabhi purani nahi hoti,
    na chahte huye bhi begani nahi hoti.
    akksar hum kho jate hai in me.
    kyoki inke bina meri kahani kuchh nahi hai!
    .....................aapne bahut achchha likha hai apne bhavo ko!!

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आपके उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद्